भारत रत्न पं.गोविंद बल्लभ पंतः राष्ट्र-निर्माण, सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय एकता को किया जीवन समर्पित

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उत्तराखंड:भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत हर वर्ष 10 सितंबर को जयंती मनाई जाती है. इस वर्ष भी 138वीं जयंती धूमधाम से मनाई जाएगी . भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत को आधुनिक भारत के एक शिल्पकार के रूप में जाना जाता है स्वतंत्रता सेनानी से राष्ट्र निर्माता बने, जिनकी विरासत आज भी प्रेरणा देती है। स्वतंत्र भारत के पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और बाद में केंद्रीय गृहमंत्री के रूप में पंत ने राष्ट्र-निर्माण, सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय एकता के कठिन कार्य को अपना जीवन समर्पित किया। उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन किया और कहा था कि “लोकतंत्र की सफलता का माप इस बात से किया जाना चाहिए कि वह समाज के विभिन्न वर्गों में कितना विश्वास उत्पन्न करता है।” पंत के लिए राजनीति समाज को ऊपर उठाने और विविध राष्ट्र को एक करने का साधन थी। उन्होंने लोकतंत्र में यह स्पष्ट किया: “किसी भी प्रकार की विभाजित निष्ठा नहीं हो सकती… सभी निष्ठाएँ केवल राज्य के चारों ओर केंद्रित होनी चाहिए।” यह राष्ट्र-निर्माण में एकता का उद्घोष था। पंत का शासन दृष्टिकोण भूमि, भाषा और प्रशासन में दूरदर्शी सुधारों को संविधानिक सिद्धांतों, आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता के प्रति अडिग प्रतिबद्धता के साथ जोड़ता था। उनका जीवन और कार्य साहस, समावेशिता और सत्यनिष्ठा पर आधारित नेतृत्व का प्रेरणादायी मॉडल प्रस्तुत करते हैं।

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उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार और सामाजिक न्याय

स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र-निर्माण के कठिन दौर में पंत का उत्तर प्रदेश में नेतृत्व विशेष रूप से चमका। उनका विश्वास था कि “राजनीति का उद्देश्य सामाजिक सुधार को सरल बनाना होना चाहिए।” मुख्यमंत्री के रूप में पंत ने क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू किए, जिन्होंने कृषक समाज की दशा बदल दी। उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 ने सामंती जमींदारी व्यवस्था को समाप्त किया और किसानों को पीढ़ियों की शोषण-श्रृंखला से मुक्त किया। 14 मार्च 1952 को विधानसभा में पंत ने घोषणा कीः “हम जमींदारी उन्मूलन अधिनियम को लागू करने में सक्षम होंगे। यह किसानों को आर्थिक और सामंती बंधन से मुक्त करेगा और उन्हें आत्मसम्मान देगा।” इस ऐतिहासिक सुधार को जुलाई 1952 तक लागू कर दिया गया और बिना किसी बड़े सामाजिक संघर्ष के जमींदारी का अंत हुआ। हजारों जमींदारों ने इसे बिना बड़े विरोध के स्वीकार किया- यह पंत की कुशल नेतृत्व क्षमता और विनम्र मनुहार का परिणाम था। एक प्रभावित जमींदार विधायक ने स्वीकार कियाः “हमें आर्थिक नुकसान हुआ… परंतु हम चुप रहे क्योंकि पंत जी का व्यवहार, नम्रता और शिष्टाचार अनुकरणीय था।” इस प्रकार पंत ने शांतिपूर्वक सामंती असमानताओं को समाप्त कर किसानों को भूमि अधिकार और गरिमा दिलाई, जिससे ग्रामीण समृद्धि और सामाजिक न्याय की नींव रखी गई।

पंत का सुधारवादी उत्साह केवल भूमि तक सीमित नहीं था। उनकी सरकार ने हिंदू कोड बिल जैसे प्रगतिशील कानून पारित किए – हिंदू पुरुषों के लिए एकपत्नी प्रथा को अनिवार्य बनाया और महिलाओं को तलाक तथा संपत्ति में अधिकार प्रदान किया। साथ ही, उन्होंने ग्राम पंचायत व्यवस्था को विकसित किया ताकि लोकतंत्र की जड़ें गाँव स्तर पर गहरी हों। उन्होंने किसानों से आत्मनिर्भर बनने, बच्चों की शिक्षा पर जोर देने और कृषि सुधार में सहयोग करने का आह्वान किया। उनका समग्र दृष्टिकोण आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक सुधार और ग्राम स्तर पर संस्थागत

विकास – इस विश्वास पर आधारित था कि लोकतंत्र की सफलता साधारण नागरिकों के जीवन सुधार में निहित है। पंत ने उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखा, जबकि पड़ोसी राज्यों में दंगे भड़क रहे थे। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की ऐसी मिसाल कायम की, जो आधुनिक भारतीय गणराज्य की बुनियाद बनी।

हिंदी का समर्थन और भाषा नीति का निर्माण

उत्तर प्रदेश के सामाजिक परिदृश्य को बदलने के साथ ही पंत ने भारतीय संघ की भाषायी भविष्य की ओर भी दृष्टि डाली। हिंदी के प्रबल समर्थक के रूप में उन्होंने इसे भारत की राजभाषा बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जबकि वे भारत की बहुभाषी विरासत का भी सम्मान करते थे। स्वतंत्रता के बाद संविधान ने प्रावधान किया था कि हिंदी (देवनागरी लिपि में) 15 वर्षों में अंग्रेज़ी की जगह संघ की राजभाषा बनेगी। 1955 से गृहमंत्री के रूप में पंत इस संवेदनशील परिवर्तन की अगुवाई कर रहे थे। उन्होंने 1957-59 के बीच संसदीय राजभाषा समिति की अध्यक्षता की, जिसे प्रायः “पंत समिति” कहा जाता है। समिति ने 1959 में सिफारिश की कि हिंदी संघ की “प्राथमिक” राजभाषा बने, लेकिन अंग्रेज़ी “सहायक” राजभाषा के रूप में बनी रहे।

व्यवहार में इसका अर्थ यह था कि हिंदी को धीरे-धीरे सरकारी कामकाज में लाया जाए, लेकिन अंग्रेज़ी उतनी अवधि तक जारी रहे जितनी गैर-हिंदी भाषी नागरिकों को आवश्यकता हो। संसद में 1959 में पंत और नेहरू ने आश्वासन दिया कि हिंदी किसी राज्य पर थोपी नहीं जाएगी और अंग्रेज़ी “अनिश्चित काल तक… जब तक लोगों को आवश्यकता होगी” चलती रहेगी। यह समझौता दूरदर्शी था, जिसने भाषायी तनाव को शांत किया और गैर-हिंदीभाषी नागरिकों को आश्वस्त किया। पंत के मार्गदर्शन में सरकार ने हिंदी अपनाने के लिए ठोस कदम उठाए-हिंदी शब्दावली और मैनुअल तैयार किए गए तथा कर्मचारियों को हिंदी प्रशिक्षण दिया गया। इस धैर्यपूर्ण आधार ने 1963 के राजभाषा अधिनियम का मार्ग प्रशस्त किया। इस प्रकार पंत की भाषा नीति ने भारत की “विविधता में एकता” की भावना को संरक्षित किया, हिंदी को राष्ट्रीय सेतु के रूप में बढ़ावा दिया और संघीय सिद्धांत का सम्मान किया।

राष्ट्रीय एकीकरण के लिए राज्यों का पुनर्गठन

गृहमंत्री के रूप में पंत का कार्यकाल एक और ऐतिहासिक परियोजना से चिह्नित हुआः राज्यों का पुनर्गठन। 1950 के दशक के मध्य में भाषायी और सांस्कृतिक आधार पर राज्यों की मांगें बढ़ रही थीं। पंत ने संवैधानिक उपायों से इन चुनौतियों का समाधान किया। उन्होंने राज्यों के पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों को लागू कराया और 11 सितंबर 1956 को संसद में संविधान (सातवाँ संशोधन) विधेयक पेश किया। यह अधिनियम पारित होने पर भारत का नक्शा फिर से बना भाषाई आधार पर संगठित राज्य बने। पंत ने इसे “एकीकरण का ऐसा उपाय बताया जो देश की एकता और अखंडता के लिए सहायक होगा।”

इस पुनर्गठन ने क्षेत्रीय समुदायों को संघ में उचित प्रतिनिधित्व दिया और विघटनकारी प्रवृत्तियों को रोका। पंत विशेष रूप से “बड़े द्विभाषी बॉम्बे राज्य” के समाधान पर गर्व करते थे, जिसने संसद की क्षमता को दर्शाया। आगेचलकर और बदलाव हुए (जैसे 1960 में महाराष्ट्र और गुजरात का निर्माण), लेकिन पंत का योगदान यह रहा कि भारत ने हिंसा के बजाय संवैधानिक प्रक्रिया से राज्यों की सीमाओं का समाधान पाया।

पंत ने चेतावनी दी थी: “यदि लोकतंत्र में आप प्रतिद्वंद्वी निष्ठाएँ पैदा करते हैं… तो लोकतंत्र नष्ट हो जाएगा।” उनकी प्रसिद्ध उक्ति “सभी निष्ठाएँ केवल राज्य के प्रति केंद्रित होनी चाहिए” – भारत के राष्ट्रीय एकीकरण का आधार बनी।

संस्थान निर्माण और प्रशासनिक दृष्टि

पंत ने यह गहराई से समझा कि स्वतंत्र भारत को मजबूत संस्थानों की आवश्यकता है। उनकी सबसे गौरवपूर्ण उपलब्धियों में से एक थी 1960 में पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना – भारत का पहला कृषि विश्वविद्यालय, जिसने हरित क्रांति को जन्म दिया। यह संस्थान आज भी कृषि विज्ञानियों और किसानों को शिक्षित कर रहा है और “भारत की हरित क्रांति का अग्रदूत” कहलाता है।

इसी प्रकार पंत ने प्रशासनिक प्रशिक्षण को भी महत्व दिया। उन्होंने 1956 में भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (IIPA) के पुस्तकालय का उद्घाटन किया और अनुसंधान आधारित शासन पर जोर दिया। उन्होंने स्थानीय शासन संस्थाओं को विकसित किया और पुलिस व सिविल सेवा सुधार को प्रोत्साहित किया। विदाई भाषण में उन्होंने कहा: “लोकतंत्र अधिकार का शासन है और वह अधिकार मन से नहीं बल्कि हृदय से आता है। वह अधिकार धार्मिकता (धर्मनिष्ठा) है।” पंत ने भारत के प्रशासनिक ढाँचे में नैतिक उद्देश्य का संचार किया।

विरासत और प्रेरणा

पाँच दशकों से अधिक सार्वजनिक सेवा करने के बाद मार्च 1961 में पंत का निधन हुआ। उन्हें एक “महान राष्ट्र-निर्माता” के रूप में याद किया गया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा: “यह समय उनके श्रम और उपलब्धियों का आकलन करने का नहीं है। शोक इतना गहरा है कि शब्द भी असमर्थ हैं।” परंतु पंत की उपलब्धियाँ स्वयं बोलती हैं – स्वतंत्र कृषक, अधिक समानतावादी समाज, भारत को जोड़े रखने वाली भाषा नीति, भारत का भाषायी मानचित्र और जीवंत संस्थान।

1957 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया यह सम्मान पाते हुए वे एकमात्र उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। आज पंत का नाम विश्वविद्यालयों, अस्पतालों और पुरस्कारों से जुड़ा है, पर उनकी सच्ची विरासत भारत के एक मजबूत, समावेशी और लोकतांत्रिक गणराज्य के विचार में जीवित है। उन्होंने दिखाया कि राष्ट्र-निर्माण निरंतर और निःस्वार्थ सेवा से ही संभव है।

उन्होंने कहा थाः “लोकतंत्र में व्यक्ति को अपने लिए कम और दूसरों के लिए अधिक सोचना चाहिए।” उनका नेतृत्व – कर्तव्य, सत्यनिष्ठा, सामाजिक कल्याण और राष्ट्रीय एकता पर आधारित आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

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